रमन उठ, घर चल, छत्तीसगढ़ पढ़ !
प्रकाशन :13-12-2010 (
करीब तीन साल पहले लिखा गया ये लेख मुझे आज भी प्रासंगिक लगता है।)
संजय शर्मा
(मुख्यमंत्री के दूसरे कार्यकाल के दो वर्ष पूरे होने पर विशेष)
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह
ने अपने दूसरे कार्यकाल के दो वर्ष पूरे कर लिए हैं। इस तरह सात सालों का
लंबा कार्यकाल उन्होंने पूरा कर लिया है। इस मौक़े पर मुझे लगता है कि उनके
जब तीन साल बाक़ी हैं और तीसरी पारी की तैयारी का समय हो चला है तब डॉ.
रमन और उनकी पार्टी को इन सात सालों की तटस्थतापूर्वक समीक्षा करने की
ज़रूरत है। और सबसे ज़्यादा तो निंदकों को सुनने की ज़रूरत है।
छत्तीसगढ़
राज्य बना तो हम सब छत्तीसगढिय़ा बेहद उत्साहित थे। उस समय मै जिस अख़बार
में काम करता था उसमें छत्तीसगढ़ को लेकर काफ़ी चीज़ें हम लिखते थे। हर
तरफ़ उत्साह दिख रहा था। किसी वरिष्ठ नेता की जगह अपेक्षाकृत नए आदमी को
मुख्यमंत्री बनाए जाने को लेकर तरह-तरह की बातें होती थीं लेकिन लोग
छत्तीसगढ़ी में धारा प्रवाह बोलते मुख्यमंत्री को देखकर सब भूल से गए थे।
अपना
राज है इसका अहसास आज भी तब होता है जब लोग मुख्यमंत्री को छत्तीसगढ़ी में
बोलते देखते हैं। डॉ रमन पर बात से पहले कुछ पीछे याद कर लिया जाए ऐसा
मुझे लगता है इससे आगे की बात थोड़ी आसान हो जाती है।
अगर मै अपनी
बात करूं तो मेरा उत्साह बहुत जल्दी ही भंग हो गया था। पत्रकार होने के
नाते नई सरकार के कामकाज पर रिपोर्टिंग करनी ही पड़ जाती थी और कुछ ही
महीने में राजनीति का वह चेहरा दिखने लगा जिससे मुझे डर लगने लगा था। ये
सोचकर बहुत परेशान था मै कि नए राज्य को हम किस दिशा में लेकर जा रहे हैं।
अगर शुरूआत ही गलत हुई तो भविष्य कैसा होगा ? हमारा सामाजिक सद्भाव में
डूबा छत्तीसगढ़ कौन सी राह पकड़ेगा? राजनीति के अखाड़े में जब मै देखता कि
दाहिना हाथ बाएं हाथ पर शक़ कर रहा है और उसे उखाड़ फेंकने को तैयार है तो
कोफ्त भी होती थी। राजनीति ने उस समय सामाजिक संघर्ष की नींव डालने का काम
शुरू कर दिया था और तभी सरकार बदल गई। जनता जान चुकी थी सत्ता की बागडोर
तुरंत सही हाथों में देने की ज़रूरत है।
यहाँ पर डॉ रमन सिंह पर्दे
पर आए। लोग इस बार भी संशय में दिख रहे थे कि डॉ रमन सिंह क्या उस कीचड़
को धो पोछ पाएंगे जो हमारे आंगन में पहले के लोग फैला गए थे और मै एक ही
दिन बाद आश्वस्त था। आज सात सालों में रमन सिंह ने लंबा रास्ता तय किया है
और इस तरह तय किया है कि सामाजिक समरसता को बिगाड़कर राजनीति करने वाले
कहाँ गिरे पता ही नहीं चल रहा।
राज बनने के समय यहाँ के ग़रीबों और
किसानों की स्थिति में तत्काल कुछ सुधार दिखने की उम्मीद थी लेकिन वह पूरी
नहीं हुई थी। डॉ. रमन के आते ही असर दिखने लगा। मध्यप्रदेश के ज़माने में
मै सालों तक धान की ख़रीदी में दलालों और कोचियों की भूमिका और किसानों के
शोषण पर लगातार स्टोरी करता रहता था। डॉ रमन की सरकार ने पूरा धान खरीदने
की घोषणा की । उस दिन सचमुच मुझे बहुत खुशी हुई थी। मै यहाँ आँकड़े लेकर इस
सरकार के काम की समीक्षा नहीं कर रहा पर इस यात्रा में जो दो तीन
महत्वपूर्ण बातें करनी चाहिए लगता है उसकी चर्चा कर रहा हूँ। गाँव ग़रीब
और किसान का नारा रमन सिंह ने दिया था। एक और विषय पीडीएस का था जिस पर भी
मै सालों तक नज़र जमाए हुए था और उसमें मची लूटमार की ख़बरें मै अक्सर देता
था। जब चुनाव के पहले गरीबों को 2 और 3रूपए में चावल देने की घोषणा हुई तो
चिंता बढ़ी पर पीडीएस के डकैतों को मुख्यमंत्री ने चेतावनी दे देकर हद में
रखा हालांकि डकैती अभी पूरी तरह बंद नहीं हो पाई है। कई और काम उन्होंने
किए जिससे जनता की राह आसान हुई है पर मै उन्हें गिनाने नहीं जा रहा। इसके
लिए सरकार का अपना जनसंपर्क विभाग है। जनता का जीवन स्तर भी इन सालों में
सुधरा और दूसरी बार चुनाव हो गए। शुरूआती दौर के अपने शासकों से डर चुकी
जनता ने दोबारा रमन सिंह को ही पसंद किया।
पर मुझे लगता है डॉ रमन
सिंह को चुनावी तैयारी में जुटने से पहले उपलब्धियाँ नहीं जो कमियाँ रह गईं
हैं उन पर ध्यान देना चाहिए और यह ऐसी कमियाँ है जो छत्तीसगढिय़ा को उसकी
अस्मिता बचाने नहीं दे रही। छत्तीसगढिय़ा आज ठगा हुआ सा खड़ा नज़र आ रहा है
क्योंकि यहाँ उसकी कोई पूछ होती नज़र नहीं आ रही है। यह सही है कि मात्र
विकास के पैमाने पर सरकार के काम से जनता संतुष्ट है पर वह छत्तीसगढिय़ा के
रूप में जिस छत्तीसगढिय़ा पहचान को कायम करना चाहती है उसमें एक भी प्रभावी
कदम बढ़ता नज़र नहीं आता। बल्कि छत्तीसगढिय़ा होना आज शासन के दरवाज़े पर
कमी की तरह देखा जा रहा है और यह तब हो रहा है जब मुख्यमंत्री छत्तीसगढिय़ा
है। मुख्यमंत्री की पार्टी में भी उनके अपने सहयोगी नेता इसे लेकर आवाज़
उठाते रहे हैं। किसी भी राज्य की पहचान मात्र विकास से की जा सकेगी यह
सोचना गलत है। दुनियाँ में ऐसा कोई देश और राज्य नहीं मिलेगा जो अपनी पहचान
को महत्व न देता हो पर अंग्रेजी दासता के चलते जिस तरह भारतीयता का दमन
हुआ और अंग्रेजी आज भी हावी है उसी तरह छत्तीसगढिय़ा पहचान का भी दमन हो रहा
है। पर यह नया राज्य है इस पर अभी से ध्यान दिया गया तो इसे रोका जा सकता
है। यहाँ और विस्तार में न जाते हुए एक दो और बातें कहना ज़रूरी समझता
हूं।
अपने पहले कार्यकाल में रमन सिंह ने जन हितैषी क़दम तो उठाए
पर भ्रष्टाचार और अफ़सरशाही के चंगुल से जनता को छुटकारा दिलाने में असफल
रहे। दोबारा सत्ता में आने पर उन्होंने कुछ इस अंदाज़ में बातें की कि लगा
अब इस बार वे पूरी ताकत से अफ़सरशाही को कुचल देंगे और एक ज़िम्मेदार और
समय पर काम करने वाला प्रशासन देंगे।
पिछले कार्यकाल में जनता ने
पहला मौक़ा है समय दो सोचकर टाला पर दूसरा कार्यकाल भी अफ़सोस के साथ कहना
पड़ रहा है कि पहले से ज़्यादा बेहतर नहीं है। सरकारी दफ़्तरों में लूट
खसोट मची हुई और अमन पसंद मुख्यमंत्री यह देख नहीं पा रहे। जनता का कोई काम
समय पर नहीं हो रहा । अफ़सर अपनी पसंद की ही फ़ाइलें देखते हैं और जनता
महीनों और सालों तक चक्कर लगा लगाकर थक रही है। भ्रष्टाचार चरम पर है और
खेद की बात है कि इसमें मंत्रालय सबसे आगे है जहाँ मुख्यमंत्री खुद बैठते
हैं। सरकार में नियमों के ख़िलाफ़ अधिकारी काम कर रहे हैं पर कोई उनसे जवाब
तलब करने वाला नहीं है। प्रमुख सचिव स्तर के भी अधिकारी नीचे से जो लिखकर आ
जाए उसे वैसे का वैसा जाने देते हैं जब तक मामला उनकी रूचि का न हो। उनकी
रूचि का मामला हो तो नियम की व्याख्या भी मनपसंद ढंग से हो रही है लेकिन आम
जनता का मामला है तो ग़लत व्याख्या भी सचिव को नहीं दिख रही है। जिलों से
लेकर मंत्रालय तक फ़ाइलें घूम रही हैं और इस सरकार में बैठे लोगों को नहीं
पता कि ऐसा क्यों हो रहा है। हैरानी की बात है कि जिन फ़ाइलों को जिले में
या संचालनालय स्तर पर ही निपटाया जा सकता है उन्हें भी मंत्रालय भेजा जाता
है और मंत्रालय में बैठे लाखों रूपए महीने का बोझ जनता पर डाल रहे आई ए एस
अफ़सर यह सवाल नहीं कर रहे कि संचालनालय को जो निपटाना चाहिए वह ऊपर क्यों
भेजा जा रहा?
ज़ाहिर है सबको रिश्वत चाहिए और रमन सिंह के कार्यकाल
की सारी उपलब्धियाँ यही मंत्रालय में बैठे अफ़सर हजम करने में लगे हैं। यह
हम रोज़ मंत्रालय और दूसरे विभागों में घूमते हुए देखते सुनते हैं। प्रदेश
के मुख्य सचिव से भी मैने जब कभी इसकी चर्चा की उन्होंने माना कि बिना
जवाबदेही के काम हो रहा है पर वे भी कुछ कर पाने में असमर्थ नज़र आ रहे
हैं। ऐसे में यह जिम्मेदारी मुख्यमंत्री की ही बनती है। उन्हें मंत्रालय का
कॉडर ख़त्म करने के बारे में भी सोचना चाहिए क्योंकि इसी के कारण वहाँ
बैठे कर्मचारी अधिकारी ख़ुद को मालिक समझते हैं और छत्तीसगढ़ की जनता को
नौकर। अपने दूसरे कार्यकाल के दो वर्ष पूरे होने की पूर्व संध्या पर डॉ रमन
सिंह ने कहा है कि अब प्रशासन में जवाबदेही लाने के लिए भी वे काम करेंगे।
हमें उनकी बात पर भरोसा करना चाहिए और उम्मीद की जानी चाहिए कि अगले चुनाव
के पहले जनता जिस तरह अभी विकास के मामले में अपने राज को महसूस कर रही है
उसी तरह प्रशासन भी उसका अपना है इसका अहसास उसे होगा।
सरकार ने
एक तरह से आधे राज्य में भय मुक्त शासन तो दे दिया है इसमें शक़ नहीं है
लेकिन आदिवासी इलाकों में अभी भी सैकड़ों हज़ारों लोग बेघर जीवन जी रहे
हैं। हजारों बच्चों की पढ़ाई चौपट दिख रही है। बंदूकों के साए में जी रहे
आदिवासी पिस रहे हैं और इसका कोई ठोस समाधान नहीं निकल पा रहा है। नक्सली
समस्या को लेकर रणनीतियाँ बन रही हैं पर बीजेपी में ही कई बड़े नेता मानते
हैं कि सरकार को और कड़ा रूख अपनाने की ज़रूरत है।
रूख चाहे जो हो
पर अपने हक से वंचित हो रहे लोगों को न्यायपूर्वक जीवन मिल सके इस दिशा में
तो सरकार को और कोई रास्ता सोचना ही होगा। नक्सलवाद के समाप्त होने तक
इंतज़ार नहीं किया जा सकता है। आदिवासी उपयोजना के नाम पर जो राशि दी जा
रही है उसका सही उपयोग हो इस पर भी कड़ाई से नज़र रखी जाए क्योंकि राशि तो
ख़ूब भेजी जा रही है पर उसका लाभ सही हकदार को मिल रहा है इसकी देखरेख
कमज़ोर है।
डॉ. रमन सिंह को तीसरे कार्यकाल का सपना देखने के पहले
यह ठीक से दिख जाए यही कामना है क्योंकि उन्हें दिखाई तो सब दे रहा है पर
हम यह मानकर चलें कि ठीक से नहीं दिख पा रहा होगा। और यह भी सही है कि रमन
सिंह निश्चिंत हो सकते हैं फ़िलहाल जनता को उनका विकल्प नहीं दिख रहा है।
ऐसे में वे कुछ न भी देखें तो भी आज की तारीख़ में तो वे मज़बूत दिख रहे
हैं लेकिन समय को कोई नहीं जानता।
डॉक्टर साहब की गाँव गरीब की
चिंता के बावजूद अभी शासन उस रसोईए की तरह दिखता है जो शादी घर में खाना
बनाने तो जाता है पर घरवालों से लगाव नहीं दिखाता। पैसा लो काम करो चलते
बनो। छत्तीसगढिय़ा की पहचान इस प्रदेश में हो और शासन छत्तीसगढिय़ा के
ज़्यादा क़रीब आए इसके लिए बहुत तेज़ी से बहुत काम करने की ज़रूरत होगी और
इसमें डॉ रमन सिंह को कठोर क़दम भी उठाने होंगे। ऐसा करने पर हो सकता है
आजू बाजू के कुछ लोग नाराज़ हो जाएं पर छत्तीसगढिय़ा उन्हें सर पर बिठाने को
तैयार होगा। मुझे पहली की किताब की पंक्तियाँ याद आ रही हैं और मै उसे इस
तरह याद कर रहा हूँ - रमन उठ घर चल......छत्तीसगढ़ पढ़.....।