सोमवार, 15 अगस्त 2016

स्वतंत्रता

स्वतंत्रता एक ऐसी अदम्य प्यास है, जो हर किसी को होती है लेकिन स्वतंत्रता को संभालने के लिए जो परिपक्वता चाहिए, वह बहुत कम लोगों के पास होती है। स्वतंत्रता को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है- नकारात्मक स्वतंत्रता, सकारात्मक स्वतंत्रता और विशुद्ध स्वतंत्रता:

नकारात्मक स्वतंत्रता है किसी चीज से मुक्ति पाना। कोई अवांछित घटना, वस्तु या व्यक्ति से मुक्ति पाने को स्वतंत्र होना कहा जाता है। अधिकतर स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले इसी प्रकार की स्वतंत्रता चाहते हैं। जीवन इतना दुखद है कि दुख से मुक्ति पाना व्यक्ति का अहम प्रयास होता है। राजनैतिक स्वतंत्रता इसी श्रेणी की है : बंधन से मुक्ति, दासता से मुक्ति। इसके लिए जो भी क्रांतियाँ की जाती हैं, वे जीतकर भी असफल होती हैं। क्योंकि दासता से मुक्ति हो गई, सत्ता आ गई, अब सत्ता पाने के बाद आगे क्या? सृजन की कोई समझ या प्रतिभा ऐसे लोगों के पास नहीं होती। स्वतंत्रता को संभालना तलवार की धार पर चलने जैसा होता है। जोखिम से भरा और उतना ही जीवन से लबालब।

दूसरी स्वतंत्रता है सकारात्मक। जैसे कोई इंसान चित्रकार बनना चाहता हो या कवि बनना चाहता हो और उसे अपने परिवार से संघर्ष करना पड़ता है, तकि उसे अपना शौक पूरा करने का अवसर मिले। तो यह सकारात्मक स्वतंत्रता है। इस व्यक्ति में बहुत-सी सृजनात्मक ऊर्जा है। उसे लड़ने में इतना रस नहीं है जितना कुछ निर्माण करने में है।

तीसरी स्वतंत्रता है विशुद्ध स्वतंत्रता या कहें आध्यात्मिक स्वतंत्रता। भारत की समूची प्रतिभा सदियों-सदियों से इसमें संलग्न थी। व्यक्तिगत मुक्ति ही ऋषियों का लक्ष्य था। यह किसी अप्रिय परिस्थिति से छुटकारा नहीं है बल्कि अपनी जन्मजात स्थिति को पाना है। भारत के सभी दर्शन और आध्यात्मिक प्रणालियाँ अत्यंतिक आत्मिक स्वतंत्रता की अभीप्सा से प्रेरित हैं।

स्व-तंत्र बड़ा ही खूबसूरत शब्द है। जिसने स्व का तंत्र पाया, वह है स्वतंत्र। क्या है स्व का तंत्र? तंत्र है तकनीक या ऐसी कुंजी जो आंतरिक संपदा का द्वार खोले। यह कुंजी कहीं बनी बनाई नहीं मिलती, यह हर एक को अपनी-अपनी गढ़नी पड़ती है। यह रेडीमेड नहीं है, कस्टम मेड है। जिसे यह तंत्र मिल गया, वह जिंदगी के तमाम बंधनों के बीच रहकर आजाद रहता है। वह मानो कीचड़ में रहते हुए खिलने का राज कमल से सीख लेता है। ऐसा निर्भय, निर्गुण, निरामय व्यक्ति है स्वतंत्र।

 ओशो
स्वतंत्रता

स्वतंत्रता एक ऐसी अदम्य प्यास है, जो हर किसी को होती है लेकिन स्वतंत्रता को संभालने के लिए जो परिपक्वता चाहिए, वह बहुत कम लोगों के पास होती है। स्वतंत्रता को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है- नकारात्मक स्वतंत्रता, सकारात्मक स्वतंत्रता और विशुद्ध स्वतंत्रता:

नकारात्मक स्वतंत्रता है किसी चीज से मुक्ति पाना। कोई अवांछित घटना, वस्तु या व्यक्ति से मुक्ति पाने को स्वतंत्र होना कहा जाता है। अधिकतर स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले इसी प्रकार की स्वतंत्रता चाहते हैं। जीवन इतना दुखद है कि दुख से मुक्ति पाना व्यक्ति का अहम प्रयास होता है। राजनैतिक स्वतंत्रता इसी श्रेणी की है : बंधन से मुक्ति, दासता से मुक्ति। इसके लिए जो भी क्रांतियाँ की जाती हैं, वे जीतकर भी असफल होती हैं। क्योंकि दासता से मुक्ति हो गई, सत्ता आ गई, अब सत्ता पाने के बाद आगे क्या? सृजन की कोई समझ या प्रतिभा ऐसे लोगों के पास नहीं होती। स्वतंत्रता को संभालना तलवार की धार पर चलने जैसा होता है। जोखिम से भरा और उतना ही जीवन से लबालब।

दूसरी स्वतंत्रता है सकारात्मक। जैसे कोई इंसान चित्रकार बनना चाहता हो या कवि बनना चाहता हो और उसे अपने परिवार से संघर्ष करना पड़ता है, तकि उसे अपना शौक पूरा करने का अवसर मिले। तो यह सकारात्मक स्वतंत्रता है। इस व्यक्ति में बहुत-सी सृजनात्मक ऊर्जा है। उसे लड़ने में इतना रस नहीं है जितना कुछ निर्माण करने में है।

तीसरी स्वतंत्रता है विशुद्ध स्वतंत्रता या कहें आध्यात्मिक स्वतंत्रता। भारत की समूची प्रतिभा सदियों-सदियों से इसमें संलग्न थी। व्यक्तिगत मुक्ति ही ऋषियों का लक्ष्य था। यह किसी अप्रिय परिस्थिति से छुटकारा नहीं है बल्कि अपनी जन्मजात स्थिति को पाना है। भारत के सभी दर्शन और आध्यात्मिक प्रणालियाँ अत्यंतिक आत्मिक स्वतंत्रता की अभीप्सा से प्रेरित हैं।

स्व-तंत्र बड़ा ही खूबसूरत शब्द है। जिसने स्व का तंत्र पाया, वह है स्वतंत्र। क्या है स्व का तंत्र? तंत्र है तकनीक या ऐसी कुंजी जो आंतरिक संपदा का द्वार खोले। यह कुंजी कहीं बनी बनाई नहीं मिलती, यह हर एक को अपनी-अपनी गढ़नी पड़ती है। यह रेडीमेड नहीं है, कस्टम मेड है। जिसे यह तंत्र मिल गया, वह जिंदगी के तमाम बंधनों के बीच रहकर आजाद रहता है। वह मानो कीचड़ में रहते हुए खिलने का राज कमल से सीख लेता है। ऐसा निर्भय, निर्गुण, निरामय व्यक्ति है स्वतंत्र।

 ओशो
यह परमात्मा है जो तुम्हारे पास लाखों ढंगों से आता है।
जब कोई स्त्री तुमको देख कर मुस्कुराती है तब याद रखो, यह परमात्मा है जो एक स्त्री के रूप में मुस्कुरा रहा है।

जब कोई पुष्प अपनी पंखुड़ियां खोलता है, देखो, निरीक्षण करो—परमात्मा ने अपना हृदय एक पुष्प के रूप में खोल दिया है। जब कोई पक्षी गीत गाना आरंभ करे, उसको सुनो—परमात्मा तुम्हारे लिए गीत गाने के लिए आया है।

यह सारा जीवन दिव्य है, पवित्र है। तुम सदैव पवित्र भूमि पर हो। जहां कहीं भी तुम देखते हो, यह परमात्मा है। जिसको तुम देखते हो, जो कुछ भी तुम करते हो, यह परमात्मा के लिए करते हो। तुम जो कुछ भी हो तुम परमात्मा के लिए भेंट हो। मेरा अभिप्राय यही है, जीवन को जीयो, जीवन का आनंद लो, क्योंकि यही परमात्मा है। और वह तुम्हारे पास आता है और तुम उसका आनंद नहीं ले रहे हो। वह तुम्हारे पास आता है और तुम उसका स्वागत नहीं कर रहे हो। वह आता है और उसको तुम उदास, अकेले, अरुचि से भरे हुए और मंदमति के रूप में मिलते हो।

नाचो, क्योंकि हर क्षण वह अनंत ढंगों से, लाखों रास्तों से, हर दिशा से आ रहा है। जब मैं कहता हूं जीवन को परिपूर्णता में जीयो, तो मेरा अभिप्राय है, जीवन को इस भांति जीयो जैसे कि यह परमात्मा है। और इसमें प्रत्येक बात समाहित है। जब मैं कहता हूं जीवन, तो सभी कुछ समाया हुआ है इसके भीतर। काम सम्मिलित है, प्रेम सम्मिलित है, क्रोध सम्मिलित है, सब कुछ समा गया है। कायर मत बनो। बहादुर बनो और जीवन को इसकी परिपूर्णता में, इसकी पूरी सघनता में स्वीकार कर लो।

 पतंजलि योगसूत्र - ओशो ⁠