THE
BOOK OF MIRDAD (किताब ए मीरदाद) का एक अंश.........सचमुच ऐसा ही है जैसे
कृष्ण ने अर्जुन को विराट का परिचय कराते समय कहा हो.......
अध्याय २१ इक्कीस
पवित्र प्रभु-इच्छा
घटनाएं जैसे और जब घटती हैं
वैसे और तब क्यों घटती हैं
मीरदाद: कैसी विचित्र बात है कि तुम, जो समय और स्थान के बालक हो, अभी तक यह नहीं जानते कि समय स्थान की शिलाओं पर अंकित की हुई ब्रम्हांड की स्मृति है।
यदि इन्द्रियों द्वारा सीमित होने के बावजूद तुम अपने जन्म और मृत्यु के बीच की कुछ विशेष बातों को याद रख सकते हो तो समय, जो तुम्हारे जन्म से पहले भी था और तुम्हारी मृत्यु के बाद भी सदा रहेगा, कितनी अधिक बातों को याद रख सकता है?
मैं तुमसे कहता हूँ, समय हर छोटी से छोटी बात को याद रखता है--केवल उन बातों को ही नहीं जो तुम्हे स्पष्ट याद हैं, बल्कि उन बातों को भी जिनसे तुम पूरी तरह अनजान हो।
क्योंकि समय कुछ भी नहीं भूलता; छोटी से छोटी चेष्टा, श्वास-निःश्वास, या मन की तरंग तक को नहीं। और वह सब कुछ जो समय की स्मृति में अंकित होता है स्थान में मौजूद पदार्थ पर गहरा खोद दिया जाता है।
वही धरती जिस पर तुम चलते हो, वही हवा जिसमे तुम श्वास लेते हो, वाही मकान जिसमे तुम रहते हो, तुम्हारे अतीत, वर्तमान तथा भावी जीवन की सूक्ष्मतम बातों को सहज ही तुम्हारे सामने प्रकट कर सकते हैं, यदि तुममे केवल पढ़ने की शक्ति और अर्थ को ग्रहण करने की उत्सुकता हो।
जैसे जीवन में वैसे ही मृत्यु में, जैसे धरती पर वैसे ही धरती से परे, तुम कभी अकेले नहीं हो, बल्कि उन पथार्थों और जीवों की निरंतर संगति में ही जो तुम्हारे जीवन और मृत्यु में भागीदार हो। जैसे तुम उनसे कुछ लेते हो, वैसे ही वे तुमसे कुछ लेते हैं, औए जैसे तुम उन्हें ढूंढ़ते हो, वैसे हो वे तुम्हे ढूंढ़ते हैं।
हर पदार्थ में मनुष्य की इच्छा शामिल है और मनुष्य में शामिल है पदार्थ की इच्छा। यह परस्पर विनिमय निरंतर चलता है। परन्तु मनुष्य की दुर्बल स्मृति एक बहुत ही घटिया मुनीम है। समय की अचूक स्मृति का यह हाल नहीं है; वह मनुष्य के अपने साथी मनुष्य के साथ तथा ब्रम्हांड के एनी सब जीवों के साथ संबंधों का पूरा-पूरा हिसाब रखती है, और मनुष्य को हर जीवन हर मृत्यु में प्रतिक्षण अपना हिसाब चुकाने पर विवश करती है।
बिजली कभी किसी मकान पर नहीं गिरती जब तक वह मकान उसे अपनी ओर न खींचे। अपनी बर्बादी के लिये यह मकान उतना ही जिम्मेदार होता है, जितनी बिजली।
साँड कभी किसी को सीग नहीं मारता जब तक वह मनुष्य उसे सींग मारने का निमंत्रण न दे और वास्तव में वह मनुष्य इस रक्त-पात के लिये साँड से अधिक उत्तरदायी होता है।
मारा जाने वाला मारनेवाले के छुरे को सान देता है और घातक बार दोनों करते हैं। लुटनेवाला लूटनेवाले की चेष्टाओं को निर्देश देता है और डाका दोनों डालते हैं।
हाँ, मनुष्य अपनी विपत्तियों को निमंत्रण देता है और फिर इन दुखदायी अतिथियों के प्रति विरोध प्रकट करता है, क्योंकि वह भूल जाता है कि उसने कैसे, कब और कहाँ उन्हें निमंत्रण-पत्र लिखे और भेजे थे। परन्तु समय नहीं भूलता; समय उचित अवसर पर हर निमंत्रण-पत्र ठीक पते पर दे देता है। और समय ही हर अतिथि को मेजबान के घर पहुंचाता है।
मैं तुमसे कहता हूँ, किसी अथिति का विरोध मत करो, कहीं ऐसा न हो बहुत ज्यादा ठहरकर, या जितनी बार वह अन्यथा आवश्यक समझता उससे अधिक बार आकर, वह अपने स्वाभिमान को लगी ठेस का बदला ले।
अपने सभी अतिथियों का प्रेमपूर्वक सत्कार करो, उनकी चाल-ढाल और उनका व्यवहार कैसा भी हो, क्योंकि वे वास्तव में केवल तुम्हारे लेनदार हैं। खासकर अप्रिय अतिथियों का जितना चाहिए उससे भी अधिक सत्कार करो ताकि वे संतुष्ट और आभारी होकर जाएँ, और दुबारा तुम्हारे घर आयें तो मित्र बनकर आयें, लेनदार नहीं।
प्रत्येक अतिथि की ऐसी आवभगत करो मानो वह तुम्हारा विशेष सम्मानित अतिथि हो, ताकि तुम उसका विश्वास प्राप्त कर सको और उसके आने के गुप्त उद्देश्यों को जान सको।
दुर्भाग्य को इस प्रकार स्वीकार करो मानो वह सौभाग्य हो, क्योंकि दुर्भाग्य को यदि एक बार समझ लिया जाये तो वह शीघ्र ही सौभाग्य में बदल जाता है। जबकि सौभाग्य का यदि गलत अर्थ लगा लिया जाये तो वह शीघ्र ही दुर्भाग्य बन जाता है।
तुम्हारी अस्थिर स्मृति स्पष्ट दिखाई दे रहे छिद्रों और दरारों से भरा भ्रमों का जाल है; इसके बावजूद अपने जन्म तथा मृत्यु का, उसके समय,स्थान और ढंग का चुनाव भी तुम स्वयं ही करते हो।
बुद्धिमत्ता का दावा करने वाले घोषणा करते हैं कि अपने जन्म और मृत्यु में मनुष्य का कोई हाथ नहीं होता। आलसी लोग, जो समय और स्थान को अपनी संकीर्ण तथा टेढ़ी नजर से देखते हैं, समय और स्थान में घटनेवाली अधिकाँश घटनाओं को संयोग मानकर उन्हें सहज ही मन से निकाल देते हैं। उनके मिथ्या गर्व और धोखे से सावधान, मेरे साथियो।
समय और स्थान के अंदर कोई आकस्मिक घटना नहीं होती। सब घटनाएं प्रभु-इच्छा के आदेश से घटती हैं, जो जो न किसी बात में गलती करती हैं, न किसी चीज को अनदेखा करती हैं।
जैसे बर्षा की बूँदें अपने आप को झरनों में एकत्र कर लेती हैं, झरने, नालों और छोटी नदियों में इकट्ठेहोने के लिये बहते हैं, छोटी नदियाँ तथा नाले अपने आपको सहायक नदियों के रूप में बड़ी नदियों को अर्पित कर देते हैं, महानदियाँ अपने जल को सागर तक पहुंचा देती हैं, और सागर महासागर में इकट्ठे हो जाते हैं, वैसे ही हर सृष्ट पदार्थ या जीव की हर इच्छा एक सहायक नदी के रूप में बहकर प्रभु-इच्छा में जा मिलती है।
मैं तुमसे कहता हूँ कि हर पदार्थ की इच्छा होती है। यहाँ तक कि पत्थर भी, जो देखने मैं इतना गूँगा, बहरा और बेजान होता है, इच्छा से विहीन नहीं होता। इसके बिना इसका अस्तित्व ही नहीं होता, और न वह किसी चीज को प्रभावित करता न कोई चीज उसे प्रभावित करती। इच्छा करने का और अस्तित्व का उसका बोध मात्रा में महुष्य के बोध से भिन्न हो सकता है, परन्तु अपने मूल रूप में नहीं। एक दिन के जीवन के कितने अंश के बोध का तुम दावा कर सकते हो? निःसंदेह, एक बहुत ही थोड़े अंश का।
बुद्धि और स्मरण-शक्ति से तथा भावनाओं और विचारों को दर्ज करने के साधनों से सम्पन्न होते हुए भी यदि तुम दिन के जीवन के अधिकाँश भाग से बेखबर रहते हो, तो फिर पत्थर अपने जीवन और इच्छा से इस तरह बेखबर रहता है तो तुम्हे आश्चर्य क्यों होता है?
और जिस प्रकार जीने और चलने-फिरने का बोध न होते हुए तुम इतना जी लेते हो, चल-फिर लेते हो, उसी प्रकार इच्छा करने का बोध न होते हुए भी तुम इतनी इच्छाएँ कर लेते हो। किन्तु प्रभु-इच्छा को तुम्हारे और ब्रम्हांड के हर जीव और पदार्थ की निर्बोधता का ज्ञान है।
समय के प्रत्येक क्षण और और स्थान के प्रत्येक बिंदु पर अपने आपको फिरसे बाँटना प्रभु-- इच्छा का स्वभाव है। और ऐसा करते हुए प्रभु-- इच्छा हर मनुष्य को और हर पदार्थ को वह सब लौटा देती है---न उससे अधिक न कम--जिसकी उसने जानते हुए और अनजाने में इच्छा की थी। परन्तु मनुष्य यह बात नहीं जानते, इसलिए प्रभु- इच्छा के थैले में से, जिसमे सबकुछ होता है, उनके हिस्से में जो भी आता है उससे वह बहुधा निराश हो जाते हैं। और फिर हताश होकर शिकायत करते हैं और अपनी निराशा के लिये चंचल भाग्य को दोषी ठहराते हैं।
भाग्य चंचल नहीं होता, साधुओ, क्योंकि भाग्य प्रभु-इच्छा का ही दुसरा नाम है। यह तो मनुष्य की इच्छा है जो अभी तक अत्यंत चपल, अत्यंत अनियमित तथा अपने मार्ग के बारे में अनिश्चित है। यह आज तेजी से पूर्व की ओर दौड़ती है तो कल पश्चिम की ओर। यह किसी चीज पर यहाँ अच्छाई की मोहर लगा देती है, तो उसी को वहां बुरा कहकर उसकी निंदा करती है। अभी यह किसी को मित्र के रूप में स्वीकार करती है, अगले ही पल उसी को शत्रु मानकर उससे युद्ध छेड़ देती है।
तुम्हारी इच्छा को चंचल नहीं होना चाहिये, मेरे साथियो। यह जान लो कि पदार्थ और मनुष्य के साथ तुम्हारे सम्बन्ध इस बात से तय होते हैं कि तुम उससे क्या चाहते हो और वे तुमसे क्या चाहते हैं। और जो तुम उनसे चाहते हो, उसी से यह निर्धारित होता है कि वे तुम से क्या चाहते हैं।
इसलिये मैंने पहले भी तुमसे कहा था, और अब भी कहता हूँ: ध्यान रखो तुम कैसे साँस लेते हो, कैसे बोलते हो, क्या चाहते हो, क्या सोचते,कहते और करते हो। क्योंकि तुम्हारी इच्छा हर सांस में,हर चाह में, तुम्हारे हर विचार, वचन और कर्म में छिपी रहती है। और जो तुमसे छिपा है वह प्रभु-इच्छा के लिये सदा प्रकट है।
किसी मनुष्य से ऐसे सुख की इच्छा न रखो जो उसके लिये दुःख हो; कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा सुख तुम्हे उस दुःख से अधिक पीड़ा दे।
न ही किसी से ऐसे हित की कामना करो जो उसके लिये अहित हो;कहीं ऐसा न हो कि तुम अपने ही लिये अहित की कामना कर रहे होओं।
बल्कि सब मनुष्यों और सब पदार्थों से उनके प्रेम की इच्छा करो;क्योंकि उसी के द्वारा तुम्हारे परदे उठेंगे, तुम्हारे ह्रदय में ज्ञान प्रकट होगा जो तुम्हारी इच्छा को प्रभु-इच्छा के अद्भुत रहस्यों से परिचित करा देगा।
जब तक तुम्हे सब पदार्थों का बोध नहीं हो जाता, तब तक तुम्हे न अपने अंदर उनकी इच्छा का बोध हो सकता है और न उनके अंदर अपनी इच्छा का।
जब तक तुम्हे सभी पदार्थों में अपनी इच्छा तथा अपने अंदर उनकी इच्छा का बोध नहीं हो जाता, तब तक तुम प्रभु-इच्छा के रहस्यों को नहीं जान सकते।
और जब तक प्रभु-इच्छा के रहस्यों को जान न लो, तुम्हे अपनी इच्छा को उसके विरोध में खडा नहीं करना चाहिये; क्योंकि पराजय निःसंदेह तुम्हारी होगी। हर टकराव में तुम्हारा शारीर घायल होगा और तुम्हारा ह्रदय कटुता से भर जायेगा। तब तुम बदला लेने का प्रयास करोगे, और परिणाम यह होगा तुम्हारे घावों में नये घाव जुड़ जायेंगे और तुम्हारी कटुता का प्याला भरकर छलकने लगेगा।
मैं तुमसे कहता हूँ, यदि तुम हार को जीत में बदलना चाहते हो तो प्रभु-इच्छा को स्वीकार करो। बिना किसी आपत्ति के स्वीकार करो उन सब पदार्थों को जो उसके रहस्यपूर्ण थैले में से तुम्हारे लिये निकलें; कृतज्ञता तथा इस विश्वास के साथ स्वीकार करो कि प्रभु इच्छा में वे तुम्हारा उचित तथा नियत हिस्सा हैं। उनका मूल्य और अर्थ समझने की दृढ़ भावना से उन्हें स्वीकार करो।
और जब एक बार तुम अपनी इच्छा की गुप्त कार्य-प्रणाली को समझ लोगे,तो तुम प्रभु इच्छा को समझ लोगे।
जिस बात को तुम नहीं जानते उसे स्वीकार करो ताकि उसे जानने में वह तुम्हारी सहायता करे। उसके प्रति रोष प्रकट करोगे तो वह एक अनबूझ पहेली बनी रहेगी।
अपनी इच्छा को तब तक प्रभु- इच्छा की दासी बनी रहने दो जब तक दिव्य ज्ञान प्रभु-इच्छा को तुम्हारी इच्छा की दासी न बना दे।
यही शिक्षा थी मेरी नूह को।
यही शिक्षा है मेरी तुम्हे।
पवित्र प्रभु-इच्छा
घटनाएं जैसे और जब घटती हैं
वैसे और तब क्यों घटती हैं
मीरदाद: कैसी विचित्र बात है कि तुम, जो समय और स्थान के बालक हो, अभी तक यह नहीं जानते कि समय स्थान की शिलाओं पर अंकित की हुई ब्रम्हांड की स्मृति है।
यदि इन्द्रियों द्वारा सीमित होने के बावजूद तुम अपने जन्म और मृत्यु के बीच की कुछ विशेष बातों को याद रख सकते हो तो समय, जो तुम्हारे जन्म से पहले भी था और तुम्हारी मृत्यु के बाद भी सदा रहेगा, कितनी अधिक बातों को याद रख सकता है?
मैं तुमसे कहता हूँ, समय हर छोटी से छोटी बात को याद रखता है--केवल उन बातों को ही नहीं जो तुम्हे स्पष्ट याद हैं, बल्कि उन बातों को भी जिनसे तुम पूरी तरह अनजान हो।
क्योंकि समय कुछ भी नहीं भूलता; छोटी से छोटी चेष्टा, श्वास-निःश्वास, या मन की तरंग तक को नहीं। और वह सब कुछ जो समय की स्मृति में अंकित होता है स्थान में मौजूद पदार्थ पर गहरा खोद दिया जाता है।
वही धरती जिस पर तुम चलते हो, वही हवा जिसमे तुम श्वास लेते हो, वाही मकान जिसमे तुम रहते हो, तुम्हारे अतीत, वर्तमान तथा भावी जीवन की सूक्ष्मतम बातों को सहज ही तुम्हारे सामने प्रकट कर सकते हैं, यदि तुममे केवल पढ़ने की शक्ति और अर्थ को ग्रहण करने की उत्सुकता हो।
जैसे जीवन में वैसे ही मृत्यु में, जैसे धरती पर वैसे ही धरती से परे, तुम कभी अकेले नहीं हो, बल्कि उन पथार्थों और जीवों की निरंतर संगति में ही जो तुम्हारे जीवन और मृत्यु में भागीदार हो। जैसे तुम उनसे कुछ लेते हो, वैसे ही वे तुमसे कुछ लेते हैं, औए जैसे तुम उन्हें ढूंढ़ते हो, वैसे हो वे तुम्हे ढूंढ़ते हैं।
हर पदार्थ में मनुष्य की इच्छा शामिल है और मनुष्य में शामिल है पदार्थ की इच्छा। यह परस्पर विनिमय निरंतर चलता है। परन्तु मनुष्य की दुर्बल स्मृति एक बहुत ही घटिया मुनीम है। समय की अचूक स्मृति का यह हाल नहीं है; वह मनुष्य के अपने साथी मनुष्य के साथ तथा ब्रम्हांड के एनी सब जीवों के साथ संबंधों का पूरा-पूरा हिसाब रखती है, और मनुष्य को हर जीवन हर मृत्यु में प्रतिक्षण अपना हिसाब चुकाने पर विवश करती है।
बिजली कभी किसी मकान पर नहीं गिरती जब तक वह मकान उसे अपनी ओर न खींचे। अपनी बर्बादी के लिये यह मकान उतना ही जिम्मेदार होता है, जितनी बिजली।
साँड कभी किसी को सीग नहीं मारता जब तक वह मनुष्य उसे सींग मारने का निमंत्रण न दे और वास्तव में वह मनुष्य इस रक्त-पात के लिये साँड से अधिक उत्तरदायी होता है।
मारा जाने वाला मारनेवाले के छुरे को सान देता है और घातक बार दोनों करते हैं। लुटनेवाला लूटनेवाले की चेष्टाओं को निर्देश देता है और डाका दोनों डालते हैं।
हाँ, मनुष्य अपनी विपत्तियों को निमंत्रण देता है और फिर इन दुखदायी अतिथियों के प्रति विरोध प्रकट करता है, क्योंकि वह भूल जाता है कि उसने कैसे, कब और कहाँ उन्हें निमंत्रण-पत्र लिखे और भेजे थे। परन्तु समय नहीं भूलता; समय उचित अवसर पर हर निमंत्रण-पत्र ठीक पते पर दे देता है। और समय ही हर अतिथि को मेजबान के घर पहुंचाता है।
मैं तुमसे कहता हूँ, किसी अथिति का विरोध मत करो, कहीं ऐसा न हो बहुत ज्यादा ठहरकर, या जितनी बार वह अन्यथा आवश्यक समझता उससे अधिक बार आकर, वह अपने स्वाभिमान को लगी ठेस का बदला ले।
अपने सभी अतिथियों का प्रेमपूर्वक सत्कार करो, उनकी चाल-ढाल और उनका व्यवहार कैसा भी हो, क्योंकि वे वास्तव में केवल तुम्हारे लेनदार हैं। खासकर अप्रिय अतिथियों का जितना चाहिए उससे भी अधिक सत्कार करो ताकि वे संतुष्ट और आभारी होकर जाएँ, और दुबारा तुम्हारे घर आयें तो मित्र बनकर आयें, लेनदार नहीं।
प्रत्येक अतिथि की ऐसी आवभगत करो मानो वह तुम्हारा विशेष सम्मानित अतिथि हो, ताकि तुम उसका विश्वास प्राप्त कर सको और उसके आने के गुप्त उद्देश्यों को जान सको।
दुर्भाग्य को इस प्रकार स्वीकार करो मानो वह सौभाग्य हो, क्योंकि दुर्भाग्य को यदि एक बार समझ लिया जाये तो वह शीघ्र ही सौभाग्य में बदल जाता है। जबकि सौभाग्य का यदि गलत अर्थ लगा लिया जाये तो वह शीघ्र ही दुर्भाग्य बन जाता है।
तुम्हारी अस्थिर स्मृति स्पष्ट दिखाई दे रहे छिद्रों और दरारों से भरा भ्रमों का जाल है; इसके बावजूद अपने जन्म तथा मृत्यु का, उसके समय,स्थान और ढंग का चुनाव भी तुम स्वयं ही करते हो।
बुद्धिमत्ता का दावा करने वाले घोषणा करते हैं कि अपने जन्म और मृत्यु में मनुष्य का कोई हाथ नहीं होता। आलसी लोग, जो समय और स्थान को अपनी संकीर्ण तथा टेढ़ी नजर से देखते हैं, समय और स्थान में घटनेवाली अधिकाँश घटनाओं को संयोग मानकर उन्हें सहज ही मन से निकाल देते हैं। उनके मिथ्या गर्व और धोखे से सावधान, मेरे साथियो।
समय और स्थान के अंदर कोई आकस्मिक घटना नहीं होती। सब घटनाएं प्रभु-इच्छा के आदेश से घटती हैं, जो जो न किसी बात में गलती करती हैं, न किसी चीज को अनदेखा करती हैं।
जैसे बर्षा की बूँदें अपने आप को झरनों में एकत्र कर लेती हैं, झरने, नालों और छोटी नदियों में इकट्ठेहोने के लिये बहते हैं, छोटी नदियाँ तथा नाले अपने आपको सहायक नदियों के रूप में बड़ी नदियों को अर्पित कर देते हैं, महानदियाँ अपने जल को सागर तक पहुंचा देती हैं, और सागर महासागर में इकट्ठे हो जाते हैं, वैसे ही हर सृष्ट पदार्थ या जीव की हर इच्छा एक सहायक नदी के रूप में बहकर प्रभु-इच्छा में जा मिलती है।
मैं तुमसे कहता हूँ कि हर पदार्थ की इच्छा होती है। यहाँ तक कि पत्थर भी, जो देखने मैं इतना गूँगा, बहरा और बेजान होता है, इच्छा से विहीन नहीं होता। इसके बिना इसका अस्तित्व ही नहीं होता, और न वह किसी चीज को प्रभावित करता न कोई चीज उसे प्रभावित करती। इच्छा करने का और अस्तित्व का उसका बोध मात्रा में महुष्य के बोध से भिन्न हो सकता है, परन्तु अपने मूल रूप में नहीं। एक दिन के जीवन के कितने अंश के बोध का तुम दावा कर सकते हो? निःसंदेह, एक बहुत ही थोड़े अंश का।
बुद्धि और स्मरण-शक्ति से तथा भावनाओं और विचारों को दर्ज करने के साधनों से सम्पन्न होते हुए भी यदि तुम दिन के जीवन के अधिकाँश भाग से बेखबर रहते हो, तो फिर पत्थर अपने जीवन और इच्छा से इस तरह बेखबर रहता है तो तुम्हे आश्चर्य क्यों होता है?
और जिस प्रकार जीने और चलने-फिरने का बोध न होते हुए तुम इतना जी लेते हो, चल-फिर लेते हो, उसी प्रकार इच्छा करने का बोध न होते हुए भी तुम इतनी इच्छाएँ कर लेते हो। किन्तु प्रभु-इच्छा को तुम्हारे और ब्रम्हांड के हर जीव और पदार्थ की निर्बोधता का ज्ञान है।
समय के प्रत्येक क्षण और और स्थान के प्रत्येक बिंदु पर अपने आपको फिरसे बाँटना प्रभु-- इच्छा का स्वभाव है। और ऐसा करते हुए प्रभु-- इच्छा हर मनुष्य को और हर पदार्थ को वह सब लौटा देती है---न उससे अधिक न कम--जिसकी उसने जानते हुए और अनजाने में इच्छा की थी। परन्तु मनुष्य यह बात नहीं जानते, इसलिए प्रभु- इच्छा के थैले में से, जिसमे सबकुछ होता है, उनके हिस्से में जो भी आता है उससे वह बहुधा निराश हो जाते हैं। और फिर हताश होकर शिकायत करते हैं और अपनी निराशा के लिये चंचल भाग्य को दोषी ठहराते हैं।
भाग्य चंचल नहीं होता, साधुओ, क्योंकि भाग्य प्रभु-इच्छा का ही दुसरा नाम है। यह तो मनुष्य की इच्छा है जो अभी तक अत्यंत चपल, अत्यंत अनियमित तथा अपने मार्ग के बारे में अनिश्चित है। यह आज तेजी से पूर्व की ओर दौड़ती है तो कल पश्चिम की ओर। यह किसी चीज पर यहाँ अच्छाई की मोहर लगा देती है, तो उसी को वहां बुरा कहकर उसकी निंदा करती है। अभी यह किसी को मित्र के रूप में स्वीकार करती है, अगले ही पल उसी को शत्रु मानकर उससे युद्ध छेड़ देती है।
तुम्हारी इच्छा को चंचल नहीं होना चाहिये, मेरे साथियो। यह जान लो कि पदार्थ और मनुष्य के साथ तुम्हारे सम्बन्ध इस बात से तय होते हैं कि तुम उससे क्या चाहते हो और वे तुमसे क्या चाहते हैं। और जो तुम उनसे चाहते हो, उसी से यह निर्धारित होता है कि वे तुम से क्या चाहते हैं।
इसलिये मैंने पहले भी तुमसे कहा था, और अब भी कहता हूँ: ध्यान रखो तुम कैसे साँस लेते हो, कैसे बोलते हो, क्या चाहते हो, क्या सोचते,कहते और करते हो। क्योंकि तुम्हारी इच्छा हर सांस में,हर चाह में, तुम्हारे हर विचार, वचन और कर्म में छिपी रहती है। और जो तुमसे छिपा है वह प्रभु-इच्छा के लिये सदा प्रकट है।
किसी मनुष्य से ऐसे सुख की इच्छा न रखो जो उसके लिये दुःख हो; कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा सुख तुम्हे उस दुःख से अधिक पीड़ा दे।
न ही किसी से ऐसे हित की कामना करो जो उसके लिये अहित हो;कहीं ऐसा न हो कि तुम अपने ही लिये अहित की कामना कर रहे होओं।
बल्कि सब मनुष्यों और सब पदार्थों से उनके प्रेम की इच्छा करो;क्योंकि उसी के द्वारा तुम्हारे परदे उठेंगे, तुम्हारे ह्रदय में ज्ञान प्रकट होगा जो तुम्हारी इच्छा को प्रभु-इच्छा के अद्भुत रहस्यों से परिचित करा देगा।
जब तक तुम्हे सब पदार्थों का बोध नहीं हो जाता, तब तक तुम्हे न अपने अंदर उनकी इच्छा का बोध हो सकता है और न उनके अंदर अपनी इच्छा का।
जब तक तुम्हे सभी पदार्थों में अपनी इच्छा तथा अपने अंदर उनकी इच्छा का बोध नहीं हो जाता, तब तक तुम प्रभु-इच्छा के रहस्यों को नहीं जान सकते।
और जब तक प्रभु-इच्छा के रहस्यों को जान न लो, तुम्हे अपनी इच्छा को उसके विरोध में खडा नहीं करना चाहिये; क्योंकि पराजय निःसंदेह तुम्हारी होगी। हर टकराव में तुम्हारा शारीर घायल होगा और तुम्हारा ह्रदय कटुता से भर जायेगा। तब तुम बदला लेने का प्रयास करोगे, और परिणाम यह होगा तुम्हारे घावों में नये घाव जुड़ जायेंगे और तुम्हारी कटुता का प्याला भरकर छलकने लगेगा।
मैं तुमसे कहता हूँ, यदि तुम हार को जीत में बदलना चाहते हो तो प्रभु-इच्छा को स्वीकार करो। बिना किसी आपत्ति के स्वीकार करो उन सब पदार्थों को जो उसके रहस्यपूर्ण थैले में से तुम्हारे लिये निकलें; कृतज्ञता तथा इस विश्वास के साथ स्वीकार करो कि प्रभु इच्छा में वे तुम्हारा उचित तथा नियत हिस्सा हैं। उनका मूल्य और अर्थ समझने की दृढ़ भावना से उन्हें स्वीकार करो।
और जब एक बार तुम अपनी इच्छा की गुप्त कार्य-प्रणाली को समझ लोगे,तो तुम प्रभु इच्छा को समझ लोगे।
जिस बात को तुम नहीं जानते उसे स्वीकार करो ताकि उसे जानने में वह तुम्हारी सहायता करे। उसके प्रति रोष प्रकट करोगे तो वह एक अनबूझ पहेली बनी रहेगी।
अपनी इच्छा को तब तक प्रभु- इच्छा की दासी बनी रहने दो जब तक दिव्य ज्ञान प्रभु-इच्छा को तुम्हारी इच्छा की दासी न बना दे।
यही शिक्षा थी मेरी नूह को।
यही शिक्षा है मेरी तुम्हे।
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